मन ही हमारे बंधन, पतन, विकास और मुक्ति का कारण है : मुनि सुधाकर जी

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राजनांदगांव। युग प्रधान गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य मुनि श्री सुधाकर जी ने आज यहां कहा कि एक आदमी पाप करता हुआ भी पाप नहीं करता और एक आदमी पुण्य करता हुआ भी पाप कर जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है मन। पुण्य काटने का सबसे बड़ा स्रोत है आपका कर्म और आपका विचार। हम अपने मन को प्रशिक्षित कर लें तो हम सभी बंधनों से मुक्त हो जाएंगे, पाप कर्मों से मुक्त हो जाएंगे और मुक्ति पा लेंगे।
मुनि श्री सुधाकर जी ने तेरापंथ भवन में अपने नियमित प्रवचन के दौरान कहा कि मन ही हमारे बंधन, पतन, विकास और मुक्ति का कारण है। हम जैसा सोचते हैं, वैसे हमारे कर्म बंधन होते जाते हैं। उन्होंने कहा कि जो कर्म बंधन के कारण है वह कर्म काटने के साधन बन सकते हैं। उन्होंने कहा कि सुंदरता यदि प्राप्त करनी है तो ऐसी सुंदरता प्राप्त करो जो एक बार आने के बाद फिर ना जाए। जीवन में चाहे कैसी भी परिस्थिति आए, हिम्मत नहीं हारना चाहिए। समय कैसा भी हो वह निकल ही जाता है।
मुनिश्री ने कहा कि विद्युत से भी ज्यादा तेज गति से चलता है हमारा मन। मन को साधने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है। इसके लिए हमें आवश्यक है अपने स्वांस की गति को संतुलित करने का। आप देखेंगे कि आपका मन में आवेग आता है और कुछ देर बाद वह चले भी जाता है। जब आवेग आता है तो आप पाएंगे कि आप नाक के दाहिने तरफ के छेद से तेज गति से स्वांस ले रहे हैं, किंतु जब आवेग ठंडा हो जाता है तो आप पाएंगे कि आपके नाक के बाएं तरफ की छेद से स्वांस लेने का क्रम शुरू हो गया है, जब आवेग आता है तो सूर्य स्वांस होता है और जब आवेग ठंडा हो जाता है तो चंद्र स्वांस होता है। हमारे शरीर में जितनी भी बीमारियां हैं उसका कारण है स्वांस का संतुलित नहीं होना। संपूर्ण शक्ति को अपने शरीर में निहित करने के लिए स्वांस का संतुलित करना आवश्यक है।
मुनि श्री सुधाकर जी ने कहा कि जब भी आप गहरी स्वांस लेते हैं तो स्वांस लेते समय आप संकल्प करो कि मैं स्वस्थ हूं और जब छोड़ो तो संकल्प करो कि मेरी बीमारी दूर हो। स्वांस लेते समय सकारात्मक के भाव हो और स्वांस छोड़ते समय नकारात्मक भाव को साथ छोड़ दो। स्वांस दुनिया की सबसे बड़ी साधना है, सबसे बड़ी शक्ति है। स्वांस की गति जब बिगड़ी तो शरीर बिगड़ जाता है। बच्चों की नाड़ियां शुद्ध होती है और वह तिथियों के हिसाब से चलती है। इसलिए वह इतनी संतुलित होती है, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे इच्छाओं और लालसाओं के कारण नाड़ियां असंतुलित होती जाती है। मन को संतुलित करना है तो सबसे पहले है जरूरी है अभ्यास। यह अभ्यास अनुलोम विलोम के द्वारा या साधना के द्वारा स्वांस को संतुलित कर किया जा सकता है। स्वांस के अलावा हमारा संपूर्ण साथी कोई नहीं है। हम 24 घंटे में कितने घंटे इस साथी की ओर देखते हैं!
मुनि श्री ने कहा कि मन को साधने का दूसरा रास्ता है वैराग्य का। वैराग्य में चार भावनाएं होती है-पहली भावना है अनित्य भावना, दूसरी भावना है अशरण भावना, तीसरी भावना है संसार भावना और चौथी भावना है एकत्व भावना। मन में यह बसा लो कि मैं अकेला आया हूं और अकेला ही जाऊंगा। मन प्रशिक्षित बनेगा और शक्तिशाली बनेगा तो यह सिद्धी भी धारण करेगा। इससे पहले नरेश मुनि जी ने कहा कि आत्म शुद्धि का साधन है धर्म। जहां समता है, वहां जीवन सामान्य है और जहां विषमता है, वहां सब गड़बड़ है। जहां समता है, सहनशीलता है-वहां मानवता हैए प्रेम है और जीवन खुशहाल है।

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